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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: जमदग्निर्भार्गवः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

प꣡व꣢स्व वा꣣चो꣡ अ꣢ग्रि꣣यः꣡ सोम꣢꣯ चि꣣त्रा꣡भि꣢रू꣣ति꣡भिः꣢ । अ꣣भि꣡ विश्वा꣢꣯नि꣣ का꣡व्या꣢ ॥७७५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पवस्व वाचो अग्रियः सोम चित्राभिरूतिभिः । अभि विश्वानि काव्या ॥७७५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡व꣢꣯स्व । वा꣣चः꣢ । अ꣣ग्रियः꣢ । सो꣡म꣢꣯ । चि꣣त्रा꣡भिः꣢ । ऊति꣡भिः꣢ । अ꣣भि꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯नि । का꣡व्या꣢꣯ ॥७७५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 775 | (कौथोम) 2 » 1 » 1 » 1 | (रानायाणीय) 3 » 1 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में सोम जगदीश्वर से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) सबको उत्पन्न करनेवाले, सबको प्रेरणा देनेवाले, सब ऐश्वर्यों से युक्त, रस के भण्डार, चन्द्रमा के समान आह्लादक जगदीश्वर ! हमारी (वाचः) जिह्वा के (अग्रियः) आगे रहनेवाले आप (चित्राभिः) अद्भुत (ऊतिभिः) रक्षाओं के साथ (पवस्व) हमें पवित्र कीजिए। आप (विश्वानि) सब (काव्या) वेदकाव्यों में (अभि) चारों ओर व्याप्त हैं। कहा भी है—जिसने ऋचाएँ पढ़कर भी जगदीश्वर को नहीं जाना, वह ऋचाओं से क्या करेगा? जो ऋचाओं से उसे जान लेते हैं, वे समाधिस्थ हो जाते हैं (ऋ० १|१६४|३९) ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जिसकी जगदीश्वर रक्षा करता है, उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादौ सोमं जगदीश्वरं प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक, सर्वैश्वर्यवन्, रसागार, चन्द्रवदाह्लादक जगदीश्वर ! अस्माकम् (वाचः) जिह्वायाः, (अग्रियः) अग्रेभवः त्वम्। [अग्रशब्दाद् ‘घच्छौ च’। अ० ४।४।११७ इति भवार्थे घः प्रत्ययः।] (चित्राभिः) अद्भुताभिः (ऊतिभिः)रक्षाभिः सह (पवस्व) अस्मान् पुनीहि। त्वम् (विश्वानि) सर्वाणि (काव्या) वेदकाव्यानि (अभि)अभिव्याप्नोषि। तथा चोक्तम्—‘यस्तन्न वेद॒ किमृ॒चा क॑रिष्यति॒ य इत् तद्वि॒दुस्त इ॒मे समा॑सते (ऋ० १।१६४।३९)’ इति ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यं जगदीश्वरो रक्षति तस्य बालमपि वक्रं कर्त्तुं कोऽपि न शक्नोति ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६२।२५।